चोटी की पकड़–63

"आप कुछ सुनिए और कुछ सुनाइए।"


राजा साहब ने एजाज के आने के लिए ख़बर भेजी, साजिंदे भी बुला लाने को कहा। फिर प्रभाकर से ग़प लड़ाने लगे।

समय पर साजिंदे आ गए। एजाज भी तैयार हो गई। साज़ बाहर से मिलाकर लाए गए। प्रभाकर देखते रहे।

प्रभाकर को राजा साहब नाप न सके, कितना गहरा है।

एजाज तैयार होकर आई। राजा साहब को सलाम किया और बग़ल में एक तकिया लेकर बैठ गई। 

प्रभाकर को देखा, फिर देखा, फिर चुपचाप राजा साहब से पूछा, "आपकी तारीफ़?"

उसी फिसफिसाहट से राजा साहब ने जवाब दिया, "आपके खानदान के। गवैये हैं। देखा जाए, कैसे हैं?"

"तगड़े जान पड़ते हैं।"

"शिक्षित हैं।"

"यहाँ कैसे?" एजाज को शक हुआ।

"गाएँगे, रहेंगे। जब चाहेंगे, चले जाएंगे।"

एजाज को राजा साहब की बात का विश्वास न हुआ, उनके स्वर में ऐसा ही, कटता हुआ आदमी मिला। 

खामोश हो गई। एक दफे कमर सीधी की, फिर एकटक देखती हुई बैठी रही।

प्रभाकर ने मुद्रा को और अच्छी तरह देखा, दिल में गाँठ ली।

साजिंदे नौकर, रह-रहकर एक नज़र राजा साहब को देख लेते थे।

राजा साहब की कठिन अवस्था हुई। न एजाज को गाने के लिए कह सकते थे-अविश्वास की ऐसी प्रतिक्रिया हुई, न प्रभाकर को, प्रभाकर का गुरुत्व ऐसा गालिब था।

उन्होंने नौकर रखने के भाव को काफी मुलायम करके एजाज को देखा। एजाज ने अनुभव किया कि वह दब गई।

 बड़ा बुरा लगा। अपने से घृणा हुई। पर दबाकर, सैकड़ों पेंच कसने और सुलझानेवाली मुसकान से प्रभाकर को देखकर कहा, "जनाब ही क्यों न श्रीगणेश करें?"

प्रभाकर समझा। नम्रता से स्वीकार कर लिया। पूछा, "क्या गाऊँ?"

"जो जी में आए, कोई ऊंचे-अंग-वाली।"

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